फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इंक़लाबी नज़्म ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे’ से प्रेरित होकर मैंने कुछ लिखा हैं..
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे, कहते है फैज़..
बोल के ज़िन्दगी बाकि हैं अभी
बोल की साँसों में सिरकते हैं तराने कई
बोल के ये ज़िन्दगी तेरी हैं
बोल के तेरा दर्द बस तुझसे होकर गुज़रा हैं
बोल जो बस तूने महसूस किया हैं
बोक जो अब तक बयां न कर सके लब तेरे
बोल के आज़ाद हैं तू तेरे ही गिरफ़्त से अब
बोल के कुछ कदम का ही फासला बाक़ी हैं
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल के ज़ुबाँ अबतक तेरी हैं
प्रियंका
Lovely writing, I really like your post.Thanks a lot for sharing. 🙏🌹
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Thank you 😊
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Most welcome dear🌹🙏
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