“जीवन खेला”

हम अक्सर हार जाने की शिक़ायत करते है
और कई बार किसी चीज़ में हिस्सा ही नहीं लेते क्यूकी हम हारने से डरते है
हमारे हार जाने में और पहले ही हार मान लेने के बीच का जो फासला है,
मैंने ठीक उसी फासले को अपना जीवन मान लिया है
जिस दिन मैंने कोशिशे करनी बंद करदी मेरा यह बिच का सफर एक मृत शरीर सा पड़ा रह जाएगा और उसकी बू मुझे सताती रहेगी
 
मैंने अपनी हर चुनौतियों को एक पड़ाव की तरह लेना सीख लिया है
कभी ये पड़ाव आसान होंगे
कभी कठिन होंगे
कभी तकलीफें ज़्यादा होंगी पर उनपर काम करना मेरा काम है
 
क्यूकी कुछ वक़्त बाद बात सही या गलत की या
हार और जीत की नहीं रह जाती
थोड़े कम सही गलत होते हुए जीवन में बने रहने की हो जाने लगती है
जहा हमे यह सहूलियत मिल जाती है की हम हमारी मानसिक और शारीरिक क्षमता के अतरिक्त खुद को समेट पाने में सक्षम हो सकें
 
और कुछ वक़्त बाद आप अपने ही रचाये हुए इस जीवन खेल को दूर खड़े रहकर जब एक दर्शक की नज़र से देखने लगते हो
तो खुद के लिये हुए फैसलों पर कभी ताजुब होता है , कभी ताली बजाने का जी करता है तो कभी खुदको गाली देने का जी करता है
और कभी जब किसी पड़ाव के अंत तक पहुंच के भी वापस पीछे वही आना पड़े जहा से शुरू किया था तो हम हताश हो जाते है , हां वो निराशा जायज़ है
पर उसे वही अकेला छोड़ देना उससे भी ज़्यादा दुखदाई ,क्यूकी एक ही खेल को खेलते खेलते हारने में और हर बार चीज़ो को नए सिरे से शुरू करने में काफी कुक बदल जाता है और वो बदलाव हमारे लिए जरुरी है।
 
हमे इस बदलाव के ज़रिये यह खेल खेलना ही नहीं बल्कि इसे बदलना भी आने लगता है और यह आना जरुरी है। —प्रियंका

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